- सुमेधा कैलाश
आज मुझे मेरी नानी बहुत याद आ रही हैं। मैं उनके बड़े करीब थी। उनकी लाडली पप्पू (नानी मुझे प्यार से इसी नाम से पुकारा करती थीं)। उनसे मैंने बहुत सी कहानियां बचपन में सुनीं। हमारे परिवार में बच्चों, खासकर लड़कियों, पर कुछ भी थोपने की परंपरा नहीं रही। उनकी बातें सुनी जाती थीं। जाहिर है हम सभी बहनें हर विषय पर छोटी उम्र से ही खुलकर राय रखती थीं। मुझे नानी की तरफ से कुछ ज्यादा छूट थी।
उन्होंने एकबार मुझे उपनिषदों से एक कहानी सुनाई। संक्षेप में सुनाती हूं-
ऋषि कहोड़ वेद पाठ कर रहे थे लेकिन उनके उच्चारण में बार-बार चूक हो रही थी। तभी उनकी पत्नी सुजाता के गर्भ से आवाज़ आई- “आपका उच्चारण अशुद्ध है।”
यह सुनते ही कहोड़ कुपित हो गए। उन्होंने पूछा कि कौन है जो मेरे उच्चारण को चुनौती दे रहा है, मेरे समक्ष प्रकट हो।
फिर से आवाज आई, “पिताजी में आपका अंश हूं जो माता के गर्भ में स्थित हूं। आप जैसे ज्ञानी के मुख से अशुद्ध उच्चारण सुनकर मैंने टोका।” कुपित होकर कहोड़ ने शाप दे दिया, “तू जन्म से पूर्व ही मीनमेख निकालने लगा है। तेरे आठ अंग टेढ़े हो जाएंगे।”
बालक आठ स्थानों से टेढ़ा-मेढ़ा या वक्र पैदा हुआ इसलिए नाम पड़ा- अष्टावक्र। इस बीच कहोड़ ऋषि शास्त्रार्थ से धन प्राप्ति की इच्छा लेकर राजा जनक के दरबार पहुंचे। राजपुरोहित बन्दी ने विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। जीतने वाले को इतना ईनाम मिलता कि वह राजा के समान अमीर हो जाता लेकिन हारने वाले को जल समाधि लेनी होती थी। कहोड़ पराजित हो गए और उन्हें जल समाधि लेनी पड़ी।
कहोड़ की मृत्यु के बाद टेढ़े-मेढ़े हाथ-पैर, नाटे कद और पीठ पर कूबड़ वाला पुत्र अष्टावक्र ही सुजाता का एकमात्र आसरा था। अष्टावक्र शरीर से भले बेढंगे थे, पर बुद्धि बड़ी तीव्र थी। थोड़ी ही उम्र में वेद-शास्त्रों में पारंगत हो गया। 12 वर्ष का होने पर अष्टावक्र को जब अपनी पिता की मृत्यु का कारण पता चला तो वह राजा जनक और उनके राजपुरोहित को चुनौती देने चल पड़ा। दरबार में प्रवेश करते ही उसके टेढ़े-मेढ़े अंगों को देखकर सभी दरबारी हँसने लगे। उन्हें हँसता देख अष्टावक्र भी बड़े जोर से हंस पड़े।
राजा जनक ने उत्सुकता से पूछा- “सब के हँसने का कारण तो समझ रहा हूं पर आप क्यों हंस रहे हैं?”
अष्टावक्र बोले, “मैं तो यह समझकर आया था कि यह विद्वानों की सभा है और मैं बन्दी से शास्त्रार्थ करूंगा, पर मुझे लगता है कि मैं मूर्खों की सभा में आ गया हूं। यहां तो सब चमड़ी से इतर देख ही नहीं पाते। मैंने अपने हंसने का कारण बता दिया, अब आप अपने मूर्ख दरबारियों से पूछें कि वे किस कारण हंसे? अपनी इस शारीरिक दशा का कारण मैं नहीं हूँ। इसका कारण तो वह कुम्हार यानी ईश्वर है, जिसने मुझे ऐसा बनाया। बताएं, किस पर हंसे ये सारे मूर्ख?”
जनक लज्जित हो गए। अष्टाव्रक ने बन्दी को शास्त्रार्थ में हराया भी लेकिन नियमानुसार जल में डुबोने की जगह क्षमा कर दिया। राजा जनक उनके शिष्य बन गए।
कहानी सुनने के बाद मैंने नानी से प्रश्न किया कि इसमें उस बच्चे की क्या गलती थी जिससे उसे टेढ़ा-मेढ़ा होने का शाप मिला? उसने तो सही टोका था। नानी थोड़ी देर चुप रहीं, फिर कहा कि तुम्हारा सवाल एकदम वाजिब है पर मेरे पास आज इसका ठीक-ठीक उत्तर नहीं है। तुम इसका उत्तर खोजने का प्रयास अपने जीवन में जरूर करना। जहां भी तुम्हें जरूरी लगे वहां प्रश्न जरूर करना।
नानी की मन की कामना समझें या कोई पूर्वाभास कि मुझे जीवनसाथी के रूप में ऐसे शख्स मिले जो पेशे से तो इंजीनियर थे लेकिन उनके मन में भी वही उथल-पुथल थी ‘आखिर बच्चों की क्या गलती है, वे बड़ों की गलतियों की सजा क्यों भुगतें?’ शायद इसी प्रश्न के माध्यम से परमात्मा ने विदिशा के कैलाश सत्यार्थी और दिल्ली की सुमेधा के मिलने और जीवनभर के लिए सहयात्री बन जाने की पृष्ठभूमि तैयार की।
प्रश्न जरूरी है, यह मेरे स्वभाव में या फिर कहें विरासत में मिला है। परिवार में, समाज में, स्कूल-कॉलेज में, जहां भी प्रश्न उठाना उचित लगा, मैंने निडरता से सवाल उठाए हैं। हालांकि कई बार अपने प्रश्नों को लेकर मैं अड़ भी जाती थी। इसलिए बड़ौदा गुरुकल में मेरे साथ पढ़ने वाली मेरी कई सहेलियां यह कहकर ताने भी मारती थीं कि तेरा जन्म 10 मई को हुआ है और उसी दिन मेरठ छावनी में मंगल पांडे ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगूल फूंका था। इसलिए तुम हर जगह क्रांति करने लगती हो।
प्रश्नों को लेकर समाज की कमोबेश यही प्रतिक्रिया होती है। उन्हें टालने या झुठलाने में तरह-तरह के तर्क गढ़े जाते रहे हैं। मैं जब भी किसी बच्चे को बहुत परेशान बच्चे को देखती हूं, मुझे मेरी नानी की बात याद आती है- प्रश्न जरूर पूछना। जब हमने दिल्ली के मुक्ति आश्रम या विराट नगर के बाल आश्रम की नींव रखी तो हमारे सामने दीपक जैसे बच्चे आए जिसे बचपन में चुराकर जेबकतरों के गिरोह को बेच दिया गया। वह नशे का आदी हो गया था और किसी को ब्लेड मारकर लहूलुहान कर देने में उसे जरा सा भी नहीं हिचकता था। भावना जैसी बच्चियां आईं, जिसे दलालों ने झांसे में लेकर सर्कस में बेच दिया और उसके साथ हर दिन बलात्कार होता था।
दीपक, भावना और इनके जैसे अनगिनत बच्चों के रूप में हमारे सामने यक्ष प्रश्न बनकर खड़े थे कि आखिर हमारी क्या गलती थी? हमें क्यों आम बच्चों जैसी जिंदगी नहीं मिल रही? हम बच्चों के उन्हीं प्रश्नों को उठा रहे हैं। कैलाश जी और मैं अफ्रीका के बच्चों के ऐसे ही प्रश्नों को मुखरता से उठाने के लिए दक्षिण अफ्रीकी देशों की यात्रा पर निकल रहे हैं जो कोरोना के बाद बहुत बुरी स्थिति में हैं।
एक बार एक महिला पत्रकार ने मुझसे पूछा कि ऐसी अलग-अलग पृष्ठभूमि से, इतना अमानवीय अत्याचार झेलकर या फिर अपराध की दुनिया से छुड़ाकर लाए गए इतने सारे बच्चों के बीच आप खुद को कैसे संतुलित रख लेती हैं? यहां तो अपने एक शरारती बच्चे को संभालना मुश्किल हो जाता है और कई बार तो मैं आपा खो देती हूँ. चीखने-चिल्लाने लगती हूँ।
उनका प्रश्न वाजिब था। हमारे पास आने वाले बच्चे अपना साथ जितना कष्ट, जितना दर्द लेकर आते हैं कि उनकी आपबीती सुनकर आत्मा रो पड़ती है। अगर दिमाग पर अच्छा नियंत्रण न हो तो इंसान पागल हो जाए। ऐसे में करूणा की शक्ति रामबाण बनती है। जब भी ऐसे किसी बच्चे से सामना होता है, मैं मन में दो बातें सोचती हूँ। पहली, ईश्वर ने मुझे अच्छा बचपन दिया तो अब मुझे उसका ऋण उतारना है। इस बच्चे का जो छिन गया उसे तो नहीं लौटा सकती लेकिन इसे आगे वह सब न झेलना पड़े, इतना तो मैं कर ही सकती हूँ। यह समाज के प्रति मेरा दायित्व है।
दूसरी, यदि कभी मेरी अपनी संतान के साथ कुछ गलत होने का अंदेशा होता तो मैं क्या करती? निःसंदेह ढाल बनकर खड़ी हो जाती, अपने बच्चे पर कोई आंच न आने देती क्योंकि उसे मैंने जन्म दिया है। मेरा ममत्व उसके लिए मेरी क्षमताओं से परे जाकर प्रयास को प्रेरित करता। क्यों? क्योंकि इंसान के रूप में मेरे अंदर जो करुणा है वह अपनी सर्वोच्च क्षमता से फूटती। यानी हम इंसानों के अंदर ईश्वर ने करूणा की कोई कमी नहीं रख छोड़ी। बस अंतर इतना है कि वह हमारे भीतर से किसके लिए फूटता है।
हम वसुधैव कुटुंबकम् की बात करने वाले लोग हैं। जब सारी धरती अपना परिवार है तो फिर ममता के रूप में करूणा केवल अपनी कोख से जन्मी संतान के लिए ही क्यों फूटती है? दूसरे के बच्चे के साथ हमारे सामने अत्याचार होता रहता है और हमारा मन उसके लिए वैसा ही क्यों नहीं कलपता जैसा अपने बच्चे के लिए? हम दूसरे के बच्चे के साथ वह सब बर्ताव कैसे कर लेते हैं जिसकी अपने बच्चे के प्रति कल्पना भी नहीं कर सकते? सारा अंतर यहीं है। हम सब को अपने अंदर झांकने की जरूरत है। सोचने की जरूरत है कि हमारे अंदर की करूणा को क्या वास्तव में इतना चयनात्मक होना चाहिए? क्या उसे अपने पराए या इतना भेद करना चाहिए? ईश्वर ने करूणा का उपहार देने में हमें दरिद्र नहीं रखा, तो फिर हम लुटाने में कंजूसी क्यों कर रहे हैं?
फिर भी यह संतोष की बात है कि दुनिया की सोच में धीरे-धीरे बदलाव आने लगा है। समाज पहले के मुकाबले आज संवेदनशील तो हुआ है। इस बात का मुझे गर्व है कि इसमें थोड़ा-बहुत योगदान हमारे संगठन का भी है। लेकिन आज भी ललितपुर जैसे मामले सामने आते हैं जहां अपने साथ हुए गैंपरेप की शिकायत लिखाने पहुंची एक नाबालिग का खुद थानेदार ही थाने में ही बलात्कार कर देता है। बच्चों को उनका बचपन लौटाने के लिए छेड़े गए संघर्ष को हमारे संगठन के साथी आजादी की दूसरी लड़ाई कहकर एक दूसरे का हौसला बढ़ाते थे। देश को आजादी की ऐसी बहुत सी लड़ाइयां अभी लड़नी हैं।
हम लड़ेंगे साथी।
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